
अब पहुँची हो सड़क तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है।
सड़क मुस्कुराई —
“सचमुच कितने भोले हो भाई!”
“पत्थर, लकड़ी और खड़िया तो बची है न?”
सड़क ने सर झुकाया,
बूढ़े पीपल से हाल पूछा।
वो बोला — “वो बच्चे कहाँ गए
जो दोपहर की छाँव में खेलते थे?”
खेतों ने आह भरी,
और पगडंडियों ने रोशनी बुझा दी।
पर मिट्टी की खुशबू अभी भी इंतज़ार में है,
शायद कोई लौट आए…
तालाब की लहरें थम गईं,
उन पर अब पत्थर नहीं फेंके जाते।
पानी की सतह पर तैरती यादें
सूनी आँखों से निहारती हैं।
चौपाल की खाट पर
अब सिर्फ चुप्पी बैठी है।
दीवारों के कान भी थक गए
किस्से सुनने की आस में।
पर सड़क अब भी जमी है वहीं,
हर सुबह एक नई उम्मीद लिए।
कि शायद किसी दिन
गाँव की साँसें फिर से लौट आएँ।
पंछियों ने पेड़ों से फुसफुसाया,
“क्या हम भी पराए हो गए?”
बरगद की जड़ें चुप रहीं,
शायद जवाब में भी थकान थी।
पक्की सड़क के किनारे
वो टूटा सा मिट्टी का घर,
आज भी दरवाजे पर बैठा है,
मानो किसी के लौटने का वादा हो।
खलिहान के भूले हुए गीत
हवा में हल्की गूँज बनकर बिखरते हैं।
चक्की का पत्थर अब भी घूमता है
सपनों में, किसी बीते कल की तरह।
साँझ ढलती है, दीये नहीं जलते,
पर जुगनू अब भी चमकते हैं।
मानो अंधेरे में उम्मीद के छोटे-छोटे टुकड़े
गाँव की आत्मा को जिलाए रखते हों।
और सड़क मुस्कुराती है —
थोड़ी उदासी, थोड़ी जिज्ञासा लिए।
“शहर गए लोग कभी लौटते हैं क्या?”
खुद से ही ये सवाल पूछती है।